Breaking

Translate

विशिष्ट पोस्ट

एक गलती जो भारी पड़ी मायावती पर

एक गलती जो भारी पड़ी
Amarujala. Com
 Amar Ujala


मायावती
तीन हिंदी पट्टी राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने कांग्रेस के साथ गठजोड़ न करके भारी गलती की थी। अगर वह बहुत अधिक सीटों की अपनी मांग में कटौती करती, तो ताकतवर भाजपा को उसके अपने ही गढ़ों में हराने का ज्यादा श्रेय ले सकती थीं। अगर बहनजी कांग्रेस के साथ विजयी गठजोड़ में शामिल रहतीं, तो कम सीटें मिलने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें भारी महत्व मिलता और 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए सीटों की साझेदारी में वह बेहतर सौदेबाजी कर सकती थीं।
मायावती को सबसे बड़ा झटका छत्तीसगढ़ में लगा, जहां उन्होंने पूर्व कांग्रेसी नेता और मुख्यमंत्री अजीत जोगी के साथ गठबंधन का दांव खेला, जो बुरी तरह विफल रहा। कई राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि इससे या तो भाजपा को आसानी से जीत मिलेगी या त्रिशंकु विधानसभा बनेगी, जहां बसपा सुप्रीमो और अजीत जोगी के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा निर्णायक कारक के रूप में उभरेगा। यहां तक कि कर्नाटक जैसे हालात के कयास लगाए गए थे, जहां ये दोनों मिलकर जोगी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए दो प्रमुख पार्टियों में से किसी एक को उखाड़ फेंकेंगे। इस पिछड़े जनजातीय राज्य में कांग्रेस की जबर्दस्त जीत ने न केवल भाजपा को कुचल दिया है, बल्कि जोगी के नेतृत्व वाले मोर्चे को मात्र कुछेक सीटों पर सीमित रख उसे पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया है। वास्तव में बसपा का मत प्रतिशत 2013 के 4.29 प्रतिशत से घटकर इस बार 3.9 फीसदी रह गया है, हालांकि उसके सीटों की संख्या एक से बढ़कर दो हो गई है। 90 विधायकों वाले विधानसभा में कांग्रेस को 68 सीटें मिलीं, जबकि जोगी को मात्र सात सीटें और भाजपा को मुश्किल से 15 सीटें मिलीं, ऐसे में, कांग्रेस को विधानसभा में शायद ही कोई चुनौती मिले। अब यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि जितनी संभव हो, उतनी ज्यादा सीटें हथियाने की जल्दी में मायावती ने जोगी को साझेदार के रूप में चुनकर गलती की।
कांग्रेस से निकले जोगी ने मायावती को तो 35 सीटें दीं, लेकिन वास्तव में उन्होंने पिछड़ी जातियों (जो सबसे बड़ा वोट बैंक है) को भाजपा से कांग्रेस में जाने के लिए एकजुट किया, क्योंकि अनुसूचित जाति के नेता जोगी अब कांग्रेस से जुड़े हुए नहीं थे। इन सबके बीच राज्य में मजबूत जनाधार की कमी के कारण मायावती असहाय और मूक दर्शक बनी रहीं, क्योंकि पिछड़ा बनाम अनुसूचित जाति के सत्ता समीकरण का खेल कांग्रेस के पक्ष में जा रहा था।
मध्य प्रदेश में भी बसपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं था, जहां वह 2013 की चार सीटों से घटकर इस चुनाव में दो सीटों पर सिमट गई। पांच वर्ष पहले उसका वोट शेयर 6.42 फीसदी था, जो इस बार घटकर पांच फीसदी रह गया। इसने उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाकों के आसपास भी बसपा के जमीनी स्तर पर समर्थन में भारी गिरावट को रेखांकित किया, जहां पार्टी परंपरागत रूप से मजबूत रही है। हालांकि राजस्थान से मायावती के लिए कुछ अच्छी खबर आई, जहां बसपा अपनी सीटों की संख्या तीन से छह करने में कामयाब रही और उसके वोट शेयर में भी मामूली बढ़त (3.48 फीसदी से चार फीसदी) दर्ज की गई।
सौभाग्य से बहनजी की गलत राजनीतिक गणना के कारण 2019 में उनकी संभावना पर केवल हल्का धब्बा ही लगा, बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत न मिलने से उन्हें नए सिरे से चुनाव के बाद गठजोड़ करने का एक अवसर मिला, जिसका उपयोग उन्होंने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए तेजी से किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस को तकनीकी रूप से बसपा के समर्थन की जरूरत नहीं है, लेकिन ऐसा बताया गया कि बसपा को नई सरकार में शामिल करने के लिए वह उत्सुक है। मध्य प्रदेश में चारों निर्दलीय विधायकों ने कांग्रेस को समर्थन दिया है और राजस्थान में भी बड़ी संख्या में निर्दलीय विधायकों ने पहले ही कांग्रेस को समर्थन देने का संकेत दिया, इसलिए दोनों राज्यों में कांग्रेस के पास सरकार गठन के लिए पर्याप्त बहुमत है। कहा जा रहा है कि सोनिया और राहुल, दोनों ने स्थानीय नेतृत्व को सत्तारूढ़ गठबंधन में बसपा को शामिल करने का निर्देश दिया है। वास्तव में मायावती ने हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व को दोषी ठहराते हुए 2019 के चुनाव के लिए केंद्रीय नेताओं के साथ गठबंधन के लिए अपना दरवाजा खोल रखा है।

विडंबना यह है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की संकीर्ण जीत तथा तेलंगाना और मिजोरम में हुए नुकसान ने पार्टी नेतृत्व को अति उत्साह या अहंकार से रोक दिया है। अगर कांग्रेस ने इन सभी राज्यों में जीत दर्ज की होती या हिंदी पट्टी में बड़े अंतर से जीत हासिल की होती, तो ऐसा हो सकता था। हालांकि वरिष्ठ पार्टी नेताओं, खासकर सोनिया और राहुल गांधी को एहसास है कि 2019 में मोदी के रथ को रोकना एक कठिन काम है और कांग्रेस को व्यावहारिक आधार पर अन्य क्षेत्रीय दलों की आकांक्षाओं को समायोजित करने की आवश्यकता होगी।
इन चुनावों में मायावती को मिले झटकों का सबक यह है कि वह बहुत ज्यादा महात्वाकांक्षी या लालची न बनें और 2019 के चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ व्यवस्थित ढंग से सौदा करें। ऐसा लगता है कि उन्होंने पहले ही अखिलेश यादव और संभवतः अजित सिंह के साथ सौदा करने के साथ राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में गठबंधन बनाने का काम कर लिया है। अब यह देखना बाकी है कि उत्तर प्रदेश के अपने महागठबंधन में वह कांग्रेस को, सांकेतिक रूप से ही सही, शामिल करने की उदारता दिखाती हैं या नहीं।

बहनजी को याद रखना चाहिए कि उनका निजी ब्रांड खासकर उत्तर प्रदेश से बाहर उनकी पार्टी की ताकत से काफी ज्यादा है। अगर वास्तव में एक नया गठबंधन नई दिल्ली में भाजपा को हटाने में कामयाब रहता है और उन्हें गृह मंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद मिलता है, तो यह उनके कॅरिअर में एक बड़ी छलांग हो सकती है। लेकिन इसके उलट होने पर, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं, स्थायी रूप से उनका पतन हो जाएगा। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Adbox